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Sunday, April 17, 2011

आमजन के सपने और भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मुहिम - रवि शंकर मौर्य

आमजन के सपने और भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मुहिम - रवि शंकर मौर्य( Date : 15-04-2011)
(रवि शंकर मौर्य /कोटा )

अन्ना हजारे के चेहरे मे लोगो को महात्मा गांधी की छवि नजर आने लगी है। और आनी भी चाहिए,क्योंकि आन्दोलन जिस करवट बैठा,वो खुद अन्ना हजारे ने भी नही सोचा था,अन्ना खुद भी इस बात को स्वीकार करतें है।अन्ना हजारे को जो जन समर्थन मिला वो सोचा ना गया था,इतना बडा आन्दोंलन इतने बडे पैमाने पर विरोध,वो भी आज के युवा वर्ग का जन समर्थन।वो युवा वर्ग जिसके बारे मे ये कयास लगाऐ जाते रहें है अब तक कि ये युवा तो पथभ्रष्ट हैं,सेक्स,कैरियर,बेरोजगारी आदि तमाम चीजों मे उलझा है।वो युवा ना सिर्फ आगे आया बल्कि उसके आगे आकर विरोध करने से सरकार के हाथ पाव फूल गए।लेकिन अन्ना को मिल रहे जन समर्थन से एक बात तो साफ हो गयी है।कि देश के हर नागरिक मे भ्रष्ट्राचार को लेकर एक आग है।और उसका प्रकटीकरण इस रूप में परिणित हुआ।अन्ना के बेदाग व्यक्तित्व के कारण ही लोग अन्ना के झंडे के नीचे अपने अपने विरोध दर्ज कराने का साहस कर सके।लोक पाल बिल को लेकर सुझाव 1967 में ही प्राशासनिक सुधार आयोग की ओर से दिया गया था। और लोकसभा ने इसे 1969 में पारित भी कर दिया था।लेकिन उसके बाद भी ये कानून नही बना।उसके बाद ऐसा नही था कि प्रयास नही किए गए।कुल छोटे बडे 14 प्रयास किए गए।लेकिन सभी बेमाने,जो कानून लोगो का हक है।उन्हे अब तक नही दिया गया।कोई ना कोई बहाना बनाया जाता रहा।आज जब कि इतने बडे बडे घोटाले भ्रष्टाचार उजागर है।उस समय मे ये आन्दोंलन एक महत्वपूर्ण आन्दोंलन है।और समाजसेवी गांधीवादी विचारक अन्ना हजारे निश्चय ही आज के युग के गांधी है।जिन्होंने निस्वार्थ इतना बडा आन्दोलन खडा किया।वैसे तो इस आंदोलन से जुडे और लोग भी इस सफलता के अधिकारी है लेकिन अगर अन्ना इस आन्दोंलन में ना होतें तो तस्वीर ये ना होती।सारा का सारा श्रेय अन्ना हजारे को है लेकिन अभी ये आंदोलन सफल नही हुआ है,अभी तो शुरूआत थी।आगे भविष्य ने अपने गर्त में क्या छुपा रखा है किसी को नही पता होता।अब इंतजार है कि लोक पाल बिल कानून बने,जिसमे भ्रष्टाचार के समूल नाश के लिए निष्पक्ष व पारदर्शी जबाबदेही तय है।हमारे देश के नौकरशाहों के भ्रष्टाचार से पूरा देश हलकान है,और सभी इस बदलाव के लिए एक मंच है।लेकिन अब जब अन्ना का अनशन खत्म और अन्ना का इन्तजार शरू हुआ।तो चंद स्वार्थी कूटनीतिज्ञों की मंशा भी नजर मे आ रही है।ये गाहे बगाहे तमाम पत्र पत्रिकाओं व पोर्टलों के माध्यम से अपनी मंशा व संभावना अपने अपने तर्को के आधार सुना रहे है।लेकिन फिर भी इनकी आवाज कही नही सुनाई दे रही क्योकि ये माहौल अन्ना मय है।और वास्तव में अन्ना हजारे आज के महात्मा गांधी है।ना कोई हिंसा,ना कोई हिंसा की बात और बात भी केवल अपने हक की,और अपने हक की लडाई के 5 दिन मे ही सरकार की सांसे फूला दी।खैर ये समय तो वास्तव मे बदलाव का है।सच में विकास के बारें मे सोचने के लिए ही ये समय है।और एक मंच तले अपनी आवाज को उठाने का समय है।अन्ना के साथ कौन नही खडा है।हर आमोंखास मीडिया युवा सभी अन्ना के साथ खडे है। हमे अपने हक को मजबूत करने के एक मंच पर इसी तरह खडे रहना होगा।क्योंकि मुझे लगता है,शायद ये शुरूवात है,अभी और सर्घष है जिसे पार करना है।

(रवि शंकर मौर्य पत्रकारिता से जुडें है, ये 2006 में हिन्दी से परास्नातक व 2009 में पत्रकारिता से परास्नातक की पढाई पूरी कर पत्रकारिता के पेशे से जुडे।इन्होने दूरर्दशन व जी न्यूज से ट्रेनिंग के बाद खोज इंडिया न्यूज में बतौर प्रोडूसर काम किया।इसके बाद इन्होने राजस्थान के कोटा शहर में दैनिक नवज्योति व दैनिक भास्कर के लिए रिर्पोटर के तौर पर काम किया है। लेखक का समाज व मीडिया के तमाम विषयों पर लेखन रहा है। लेखक से ravism.mj@gmail.com मेल आई डी के जरिऐं सम्पर्क किया जा सकता है। )

http://www.mediamanch.com/Mediamanch/Site/LCatevar.php?Nid=242

Tuesday, March 8, 2011

पत्रकारिता शिक्षा और युवा ......... र वि शंकर मौर्य

(र वि शंकर मौर्य )
हमारे देश मे तकरीबन 20 से ज्यादा भाषाऐं बोली जाती है।कई संस्कृतियां यहां पनपी पोषित और पल्लिवत हुयी।कई बोलियों ने भाषाओं का रूप लिया।और कई विषयों ने नए स्वरूप पाए।पिछले कुछ वर्षो में पत्रकारिता के विषय ने जो नया स्वरूप पाया है।उसने समाचार पत्र व समाचार चैनलों के मालिकों को व्यवसाय का एक नया रास्ता दिखाया है।कुछ मीडिया मठाधीषों को भी ये रास्ता भाया।और तमाम ने पत्रकारिता के व्यवसाय को अपना पत्रकारिता के नाम और अपनी साख को बेचना शरू किया।छोटे बडे मीडिया हाउस व तमाम लोगो ने अपनी पत्रकारिता की दुकानें खोली।और पत्रकारिता की मशीनी विद्या सिखाने का नया धंधा शुरू कर दिया।इस लेख को लिखते लिखते कुल दीप नैयर साहब की एक लाइन याद आ रही है कि ष्ष्जब लोकतंत्र में हर कोई लोकमत को अपनी ओर मोडने का प्रयत्न करे तो ऐसे समय में एक विशेष प्रकार की पत्रकारिता जन्म लेती हैश्श्।आप खुद महसूस करके देखे कितना सटीक व सही लिखा है।जो अक्षरशः आज के परिवेष में सच की तरह दिख रहा है। पत्रकारिता का उदभव 131 ई पूर्व रोम में हुआ था।और आज पूरे विश्व में पत्रकारिता युवाओं के एक पंसदीदा विषय में एक है,और अपने देश में भी।तमाम युवा अपने जीवन को पत्रकारिता के इस ग्लैमर से रंगना सजाना व अपने नाम को बडा होता देखने के लिए इस क्षेत्र में कदम रखते है। लेकिन युवाओं के इस विषय के प्रति के आर्कषण ने पत्रकारिता में एक अजब सा माहौल ला दिया है।उनके इस दिलचस्पी का खासा मुनाफा पत्रकारिता के बाजार ने कमाया है और कमा रहें है।क्योंकि आज की पत्रकारिता कोई सरोकारी पत्रकारिता नही।आज के समाचारपत्रों व समाचार चैनलों को खबर चाहिऐ कम से कम पैसे में। पहले उन्होंने अध्यापकों आदि दूसरें कार्य कर रहें लोगो को साथ लेकर अपने इस उददेश्य को पूरा किया।आज फुल टाइम कम पैसे में काम करने वाले मिल रहे है। और 100 प्रतिशत प्लेशमेंट के नाम पर पैसे लेकर पत्रकारिता को सीखाने की व्यवस्था बनी हुयी दिखाई दे रही है। विश्वविद्यालयों को छोड दे,तो पत्रकारिता के जो छोटे बडें संस्थान हैउनमें ज्यादातर मंहगी फीस लेकर जो सार्टिफिकेट दे रहें है वो कही से एप्रूबड नही होते पूरे के पूरे फर्जी सार्टिफिकेट होते है। अब रही पत्रकारिता के शिक्षा की बात तो इतनी मंहगी और गुणवत्ता विहीन पत्रकारिता की शिक्षा का हाल है। कमोबेस विश्वविद्यालयों में भी पत्रकारिता के स्टूडेंट अपनी शिक्षा से संतुष्ट नही है। इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर बहस की सख्त आवश्यकता बनती जा रही है।इन प्राइवेट कालेजों की मंहगी शिक्षा का विरोध भी हूआ है।लेकिन पत्रकारिता की ताकत व साख ने बदस्तूर इस शिक्षा व्यवस्था को जारी रखा हुआ है।ये तथाकथित चैनल व अखबार अपने मंच के आबाज के जरिए और अपने यहां नौकरी के लालच को दिखा इस मंहगी पत्रकारिता की शिक्षा को बदस्तूर जारी रखें हुऐ है।शिक्षा के गुणवत्ता और उसके प्रमाण पत्र के गुणवत्ता के आधार पर ही किसी संस्थान की फीस होनी चाहिएं।ना किसी लालच के बदले फीस वसूलने की व्यवस्था।शिक्षा के इन्ही व्यवसायीकरण के परिणामतः आज की शिक्षा व्यवस्था मानक स्तरों के पास तो नही पहुचती।बल्कि ग्लैमर और अन्य ना जाने किन मानकों के करीब होती जा रही है। इस व्यवस्था को चलाने वाले खासे धनी व नामी गिरामी संस्थान व लोग है।इसलिए पत्रकारिता के इस नऐ व्यवसाय पर कोइ अंकुश नही लग पा रहा है।कौन किस संस्थान की पोल खोले।क्यों कि चोर चोर मैसेरे भाई पत्रकारिता संस्थान तो कमोबेस सभी छोटे बडे चैनल अखबार व इससे जुडे लोग चला रहें है।और नही चला रहें तो आगे चल कर चलाऐंगें।इसलिए पत्रकारिता बेचने का धंधा बदस्तूर जारी है।समाज में ये पैसा उगाही का एक ऐसा रास्ता है,जो गलत होते हुऐ भी पूरे सम्मान के साथ जारी है।इस व्यवस्था पर लगाम लगनी जरूरी है।

( लेखक पत्रकारिता से जुडें है ये 2006 में हिन्दी से परास्नातक व 2009 में पत्रकारिता से परास्नातक की पढाई पूरी कर पत्रकारिता के पेशे से जुडे।इन्होने दूरर्दशन व जी न्यूज से ट्रेनिंग के बाद खोज इंडिया न्यूज में बतौर प्रोडूसर काम किया।इसके बाद इन्होने राजस्थान के कोटा शहर में दैनिक नवज्योति व दैनिक भास्कर के लिए रिर्पोटर के तौर पर काम किया है। लेखक का मीडिया के तमाम विषयों पर लेखन रहा है। लेखक से ravism.mj@gmail.com मेल आई डी के जरिऐं सम्पर्क किया जा सकता है।)

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Tuesday, February 15, 2011

आम सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता रवि शंकर मौर्य

पत्रकारिता के माएने बदल चुके है,ये बात अक्सर सुनने को मिलती है।जब कभी पत्रकारिता के महारथियों से आज की पत्रकारिता के विषय में पूछा जाता है।तो उनका यही जबाब होता है,कि पत्रकारिता में विज्ञापन,पैसे,बाजार का महत्व बढा है।किन्तु पत्रकारिता आज भी आम सरोकारों को लेकर चलती है।लेकिन सवाल ये है, कि क्या आज पत्रकारिता के माएने बदल चुके है?क्या वाकई पत्रकारिता के मूल्यों मे बदलाव हुआ है? नही साहब पत्रकारिता आज भी जन सरोकारों के साथ है। पत्रकरिता के ना तो मानक बदले है।और ना ही बदलेगें क्योंकि अगर पत्रकारिता के मानक बदल गए तो फिर वो पत्रकारिता नही रह जाएगी।ऐसा ज्यादातर मीडिया मठाधीष कहते मिलेगें,लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है।पत्रकारिता में बाजारबाद बढा है,दिखावा बढा है। आज पत्रकारिता जगत का परिवेष,मूल्य,आदर्श,और वातावरण सभी में अमूलचूक परिवर्तन हुए है। लोगो ने आज पत्रकारिता को अपने निहित स्वार्थो के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया है।आज पत्रकारिता एक बडा बाजार है,उस बाजार ने तमाम पत्रकारिता के महारथियों का जमीर खरीद लिया है।वे वही बोलते,लिखते,सोचते व समझते मिलतें है,जो उन्हे बाजार दिखाता है।अध्ययन,स्वाध्याय से दूर ये पत्रकार क्या सोचेगें पत्रकारिता व उसके मानकों के बारे मे?आज अखबारों व चैनलों पर पूजीपतियों का कब्जा है,और वे अपनी पूंजी को बढानें के निहित स्वार्थो को लेकर पत्रकारिता का दुरूपयोग करते है। पत्रकारिता के धौस में ना जाने अपने कितने आर्थिक व अन्य मंसूबों की पूर्ति करते है। लेकिन कुछ और बडे प्रश्न है कि आज के समाचार पत्र व चैनल जो कुछ छाप रहें है या फिर प्रसारित कर रहें है क्या उसे पत्रकारिता कहा जा सकता है? पत्रकारिता से जुडें लोगों की स्थित हालात देखकर,क्षेत्रीय व स्थानीए पत्रकारिता की दुर्दशा देख कर क्या पत्रकारिता के बदले मायनों को क्या नही समझा जा सकता?
अगर ईमानदारी से यर्थाथ का चश्मा लगा कर देखने समझने का प्रयास किया जाए तो सभी कुछ आइने की तरह साफ है।आज की पत्रकारिता कोई समाज को दिशा देने चेताने वाली पत्रकारिता नही है।व्यवसायीकरण के दौर में एक अखबार दूसरे अखबार से, व एक चैनल दूसरे चैनलों से गलाकाट प्रतियोगिता कर रहा है।सर्कुलेशन,टी आर पी व विज्ञापन के लिए वे क्या कुछ नही करते।
सभी पत्रकार कमोबेस इन बातों को जानते समझते है,और सभी इन अखबारों व चैनलों के व्यवसायी मंसूबों को आम सरोकारों को नजर अन्दाज कर पोषित करते है।ज्यादातर समाचार पत्रों मे आधे से ज्यादा अखबार विज्ञप्तियों व विज्ञापनों से भरा मिलता है।व समाचारों की गुणवत्ता में कमी साफ दिखाई देती है। पेड न्यूज,कृपा राशि आदि के आंचल में कैसे और कौन सी न्यूज विश्वसनीए होगी। सोचने का विषय है,आज ना सिर्फ पूंजीपति ही बल्कि राजनेता भी अपने मंसूबों को पत्रकारिता के माध्यम से पोषित करते है।इन आकांछाओं की पूर्ति लिए चैनल मालिक,डेस्क इंचार्ज,संपादकों,रिर्पोटरों आदि को कृपा राशि का भुक्तान किया जाता है। आज की संवेदना विहीन पत्रकारिता से क्या किसी मानकों या मूल्यों की अपेछा की जा सकती है।जब संवेदना के विषयो को चटखारें लगा कर,सनसनी बना कर पेश करना आज के युग की पत्रकारिता है। और उस संवेदना विहीन खबर की जिम्मेदारी बाई लाइन या साइन आफ के लिए ही समाज,देश व पत्रकारिता किसी के मर्यादाओं को ना ध्यान रख कर लिया जाए। तो स्थित आम सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता को स्पष्ट कर देती है।